सारे देश में इस समय भारी राजनीतिक हलचल है। लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। कई राजनीतिक विश्लेषक पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनावों के आधार पर लोकसभा के समीकरण हल कर रहे हैं; पर विधानसभा चुनाव में लोग मुख्यमंत्री चुनते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री। प्रियंका के आने से उ.प्र. की मुरदा कांग्रेस में कुछ जान पड़ी है; पर केवल इसी से कांग्रेस दिल्ली को जीत लेगी, यह खामख्याली ही है। प्रियंका का आना नयी बात नहीं है। पिछले कई चुनावों से वह अपनी मां और भाई की लोकसभा सीटों पर काम करती रही हैं। लोगों का अनुमान है कि मां के खराब स्वास्थ्य के कारण रायबरेली से प्रियंका चुनाव लड़ेंगी। स.पा. और ब.स.पा. ने इस परिवार के लिए दो सीट छोड़ी हैं; पर कांग्रेस ने सभी 80 सीटें लड़ने की घोषणा की है। ऐसे में स.पा. और ब.स.पा. ने वहां गंभीर प्रत्याशी उतार दिये, तो भाई-बहिन दोनों को मुश्किल हो सकती है। प्रियंका के बारे में कई मत हैं। पहला यह कि राहुल का जादू चल नहीं पा रहा, इसलिए नया चेहरा जरूरी था। दूसरा उ.प्र. को बहिन के हवाले कर राहुल पूरे देश में घूम सकेंगे। तीसरा राहुल और सोनिया दोनों नेशनल हेराल्ड मामले में जमानत पर हैं। यदि चुनाव से पहले दोनों अंदर हो गये, तो कांग्रेस को जिंदा रहने के लिए इस परिवार से कोई एक व्यक्ति तो चाहिए ही। चैथा राहुल के फेल होने पर प्रियंका को अगले प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार किया जाए। कुछ आशावादी कह रहे हैं कि राहुल का प्रधानमंत्री बनना तय है। ऐसे में पार्टी को प्रियंका दीदी संभालेंगी। कुछ का मत है कि वस्तुतः प्रियंका को उ.प्र. के भावी मुख्यमंत्री के लिए तैयार किया जा रहा है। रॉबर्ट वाड्रा पर भ्रष्टाचार का शिकंजा भी कस रहा है। उनसे पूछताछ को राजनीतिक बदले की कार्यवाही कहा जाए, इसलिए भी प्रियंका को जल्दीबाजी में लाया गया है। घोषणा के समय वे विदेश में थीं। इससे राहुल और सोनिया की हड़बड़ी समझ में आती है। लेकिन प्रियंका फैक्टर से उ.प्र. में कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा है। पार्टी के नेता भी खुश हैं। जिन्हें टिकट मिलेगा, उनका कद बढ़ेगा। जीतना तो उन्हें है नहीं; पर केन्द्र से जो पैसे मिलेंगे, उसमें से अधिकांश वे बचा लेंगे। सभी सीट लड़ने से वोट प्रतिशत बढ़ेगा। इससे पार्टी भविष्य में स.पा. या ब.स.पा. से ठीक मोलभाव कर सकेगी। जहां तक सीट बढ़ने की बात है। माना कांग्रेस के हर लोकसभा सीट पर पचास हजार निश्चित वोट हैं। प्रियंका के कारण यदि हर सीट पर दस हजार वोट भी बढ़े, तो यह साठ हजार होते हैं; पर लोकसभा की सीट चार-पांच लाख वोटों से निकलती है। मेंढक कितना भी फूल जाए; पर वह बैल जितना नहीं हो सकता। कांग्रेस के आने से लड़ाई अब तिकोनी हो गयी है। इससे निःसंदेह भा.ज.पा. को लाभ होगा। आजम खां ने मुस्लिम वोटों के बंटने की आशंका व्यक्त की ही है। हो सकता है भा.ज.पा. को धोखे में रखने के लिए अंदरखाने कुछ और खिचड़ी पकी हो। अर्थात् चुनाव की घोषणा के बाद स.पा. और ब.स.पा. से कांग्रेस मिलकर नया गठबंधन बना ले। कुछ लोग मोदी की लोकप्रियता घटने की बात कहकर उ.प्र. में भारी नुकसान बता रहे हैं; पर सवर्ण आरक्षण और केन्द्रीय बजट के बाद वातावरण बदला है। राम मंदिर पर उदासी से साधु-संतों की नाराजगी प्रयागराज में कुंभ के सफल आयोजन से कुछ दूर जरूर हुई है। अतः उ.प्र. में बहुत अधिक नुकसान की संभावना नहीं है। लेकिन प्रियंका के आने से यह जरूर सिद्ध हो गया है कि सौ साल बूढ़ी कांग्रेस एक परिवार के दायरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। कांग्रेसी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के गीत ‘‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां’’ को गाकर ही खुश हैं। ऐसे पार्टीजनों को मानसिक बंधुआगीरी मुबारक।
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